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रामचर्चा--मुंशी प्रेमचंद


राम का राज्य

राज्याभिषेक का उत्सव समाप्त होने के उपरांत सुगरीव, विभीषण अंगद इत्यादि तो विदा हुए, किन्तु हनुमान को रामचन्द्र से इतना परेम हो गया था कि वह उन्हें छोड़कर जाने पर सहमत न हुए। लक्ष्मण, भरत इत्यादि ने उन्हें बहुत समझाया, किन्तु वह अयोध्या से न गये। उनका सारा जीवन रामचन्द्र के साथ ही समाप्त हुआ। वह सदैव रामचन्द्र की सेवा करने को तैयार रहते थे। बड़े से बड़ा कठिन काम देखकर भी उनका साहस मन्द न होता था।

रामचन्द्र के समय में अयोध्या के राज्य की इतनी उन्नति हुई, परजा इतनी परसन्न थी कि ‘रामराज्य’ एक कहावत हो गयी है। जब किसी समय की बहुत परशंसा करनी होती है, तो उसे ‘रामराज्य’ कहते हैं। उस समय में छोटेबड़े सब परसन्न थे, इसीलिए कोई चोरी न करता था। शिक्षा अनिवार्य थी, बड़ेबड़े ऋषि लड़कों को पॄाते थे, इसीलिए अनुचित कर्म न होते थे। विद्वान लोग न्याय करते थे इसलिए झूठी गवाहियां न बनायी जाती थीं। किसानों पर सख्ती न की जाती थी, इसलिए वह मन लगाकर खेती करते थे। अनाज बहुतायत से पैदा होता था। हर एक गांव में कुयें और तालाब खुदवा दिये गये थे, नहरें बनवा दी गयी थीं, इसलिए किसान लोग आकाशवर्षा पर ही निर्भर न रहते थे। सफाई का बहुत अच्छा परबन्ध था। खानेपीने की चीजों की कमी न थी। दूधघी विपुलता से पैदा होता था, क्योंकि हर एक गांव में साफ चरागाहें थीं, इसलिए देश में बीमारियां न थीं। प्लेग, हैजा, चेचक इत्यादि बीमारियों के नाम भी कोई न जानता था। स्वस्थ रहने के कारण सभी सुन्दर थे। कुरूप आदमी कठिनाई से मिलता था, क्योंकि स्वास्थ्य ही सुन्दरता का भेद है। युवा मृत्युएं बहुत कम होती थीं, इसलिए अपनी पूरी आयु तक जीते थे। गलीगली अनाथालय न थे, इसलिए कि देश में अनाथ और विधवायें थीं ही नहीं।

उस समय में आदमी की परतिष्ठा उसके धन या परसिद्धि के अनुसार न की जाती थी, बल्कि धर्म और ज्ञान के अनुसार। धनिक लोग निर्धनों का रक्त चूसने की चिन्ता में न रहते थे, न निर्धन लोग धनिकों को धोखा देते थे। धर्म और कर्तव्य की तुलना में स्वार्थ और परयोजन को लोग तुच्छ समझते थे। रामचन्द्र परजा को अपने लड़के की तरह मानते थे। परजा भी उन्हें अपना पिता समझती थी। घरघर यज्ञ और हवन होता था।
रामचन्द्र केवल अपने परामर्शदाताओं ही की बातें न सुनते थे। वह स्वयं भी परायः वेश बदलकर अयोध्या और राज्य के दूसरे नगरों में घूमते रहते थे। वह चाहते थे कि परजा का ठीकठीक समाचार उन्हें मिलता रहे। ज्योंही वह किसी सरकारी पदाधिकारी की बुराई सुनते, तुरन्त उससे उत्तर मांगते और कड़ा दण्ड देते। सम्भव न था कि परजा पर कोई अत्याचार करे और रामचन्द्र को उसकी सूचना न मिले। जिस बराह्मण को धन की ओर झुकते देखते, तुरन्त उसका नाम वैश्यों में लिखा देते। उनके राज्य में यह सम्भव न था कि कोई तो धन और परतिष्ठा दोनों ही लूटे, और कोई दोनों में से एक भी न पाये।

कई साल इसी तरह बीत गये। एक दिन रामचन्द्र रात को अयोध्या की गलियों में वेश बदले घूम रहे थे कि एक धोबी के घर में झगड़े की आवाज सुनकर वे रुक गये और कान लगाकर सुनने लगे। ज्ञात हुआ कि धोबिन आधी रात को बाहर से लौटी है और उसका पति उससे पूछ रहा है कि तू इतनी रात तक कहां रही। स्त्री कह रही थी, यहीं पड़ोस में तो काम से गयी थी। क्या कैदी बनकर तेरे घर में रहूं? इस पर पति ने कहा—मेरे पास रहेगी तो तुझे कैदी बनकर ही रहना पड़ेगा, नहीं कोई दूसरा घर ूंढ़ ले। मैं राजा नहीं हूं कि तू चाहे जो अवगुण करे, उस पर पर्दा पड़ जाय। यहां तो तनिक भी ऐसीवैसी बात हुई तो विरादरी से निकाल दिया जाऊंगा। हुक्कापानी बन्द हो जायगा। बिरादरी को भोज देना पड़ जायगा। इतना किसके घर से लाऊंगा। तुझे अगर सैरसपाटा करना है, तो मेरे घर से चली जा। इतना सुनना था कि रामचन्द्र के होश उड़ गये। ऐसा मालूम हुआ कि जमीन नीचे धंसी जा रही है। ऐसेऐसे छोटे आदमी भी मेरी बुराई कर रहे हैं! मैं अपनी परजा की दृष्टि में इतना गिर गया हूं! जब एक धोबी के दिल में ऐसे विचार पैदा हो रहे हैं तो भले आदमी शायद मेरा छुआ पानी भी न पियें। उसी समय रामचन्द्र घर की ओर चले और सारी रात इसी बात पर विचार करते रहे। कुछ बुद्धि काम न करती थी कि क्या करना चाहिए! इसके सिवा कोई युक्ति न थी कि सीता जी को अपने पास से अलग कर दें। किन्तु इस पवित्रता की देवी के साथ इतनी निर्दयता करते हुए उन्हें आत्मिक दुःख हो रहा था।

सबेरे रामचन्द्र ने तीनों भाइयों को बुलवाया और रात की घटना की चचार करके उनकी सलाह पूछी। लक्ष्मण ने कहा—उस नीच धोबी को फांसी दे देनी चाहिए, जिसमें कि फिर किसी को ऐसी बुराई करने का साहस न हो।
शत्रुघ्न ने कहा—उसे राज्य से निकाल दिया जाय। उसकी बदजवानी की यही सजा है।
भरत बोले—बकने दीजिए। इन नीच आदमियों के बकने से होता ही क्या है। सीता से अधिक पवित्र देवी संसार में तो क्या, देवलोक में भी न होगी।
लक्ष्मण ने जोश से कहा—आप क्या कहते हैं, भाई साहब! इन टके के आदमियों को इतना साहस कि सीता जी के विषय में ऐसा असन्टोष परकट करें? ऐसे आदमी को अवश्य फांसी देनी चाहिए। सीता जी ने अपनी पवित्रता का परमाण उसी समय दे दिया जब वह चिता में कूदने को तैयार हो गयीं।
रामचन्द्र ने देर तक विचार में डूबे रहने के बाद सिर उठाया और बोले—आप लोगों ने सोचकर परामर्श नहीं दिया। क्रोध में आ गये। धोबी को मार डालने से हमारी बदनामी दूर न होगी, बल्कि और भी फैलेगी। बदनामी को दूर करने का केवल एक इलाज है, और वह है कि सीताजी का परित्याग कर दिया जाय। मैं जानता हूं कि सीता लज्जा और पवित्रता की देवी हैं। मुझे पूरा विश्वास है कि उन्होंने स्वप्न में भी मेरे अतिरिक्त और किसी का ध्यान नहीं किया, किन्तु मेरा विश्वास जब परजा के दिलों में विश्वास नहीं पैदा कर सकता, तो उससे लाभ ही क्या। मैं अपने वंश में कलंक लगते नहीं देख सकता। मेरा धर्म है कि परजा के सामने जीवन का ऐसा उदाहरण उपस्थित करुं जो समाज को और भी ऊंचा और पवित्र बनाये। यदि मैं ही लोकनिन्दा और बदनामी से न डरुंगा तो परजा इसकी कब परवाह करेगी और इस परकार जनसाधारण को सीधे और सच्चे मार्ग से हट जाना सरल हो जायगा। बदनामी से ब़कर हमारे जीवन को सुधारने की कोई दूसरी ताकत नहीं है। मैंने जो युक्ति बतलायी, उसके सिवाय और कोई दूसरी युक्ति नहीं है।
तीनों भाई रामचन्द्र का यह वार्तालाप सुनकर गुमसुग हो गये। कुछ जवाब न दे सके। हां, दिल में उनके बलिदान की परशंसा करने लगे। वह जानते हैं कि सीता जी निरपराध हैं, फिर भी समाज की भलाई के विचार से अपने हृदय पर इतना अत्याचार कर रहे हैं। कर्तव्य के सामने, परजा की भलाई के समाने इन्हें उसकी भी परवाह नहीं है, जो इन्हें दुनिया में सबसे पिरय है। शायद यह अपनी बुराई सुनकर इतनी ही तत्परता से अपनी जान दे देते।
रामचन्द्र ने एक क्षण के बाद फिर कहा—हां, इसके सिवा अब कोई दूसरी युक्ति नहीं है। आज मुझे एक धोबी से लज्जित होना पड़ रहा है मैं इसे सहन नहीं कर सकता। भैया लक्ष्मण, तुमने बड़े कठिन अवसरों पर मेरी सहायता की है यह काम भी तुम्हीं को करना होगा। मुझसे सीता से बात करने का साहस नहीं है, मैं उनके सामने जाने का साहस नहीं कर सकता। उनके सामने जाकर मैं अपने राष्ट्रीय कर्तव्य से हट जाऊंगा, इसलिए तुम आज ही सीता जी को किसी बहाने से लेकर चले जाओ। मैं जानता हूं कि निर्दयता करते हुए तुम्हारा हृदय तुमको कोसेगा; किन्तु याद रक्खो, कर्तव्य का मार्ग कठिन है। जो आदमी तलवार की धार पर चल सके, वहीं कर्तव्य के रास्ते पर चल सकता है।
यह आज्ञा देकर रामचन्द्रजी दरबार में चले गये। लक्ष्मण जानते थे कि यदि आज रामचन्द्र की आज्ञा का पालन न किया गया तो वह अवश्य आत्महत्या कर लेंगे। वह अपनी बदनामी कदापि नहीं सह सकते। सीता जी के साथ छल करते हुए उनका हृदय उनको धिक्कार रहा था, किन्तु विवश थे। जाकर सीता जी से बोले—भाभी ! आप जंगलों की सैर का कई बार तकाजा कर चुकी हैं, मैं आज सैर करने जा रहा हूं। चलिये, आपको भी लेता चलूं।
बेचारी सीता क्या जानती थीं कि आज यह घर मुझसे सदैव के लिए छूट रहा है! मेरे स्वामी मुझे सदैव के लिए वनवास दे रहे हैं! बड़ी परसन्नता से चलने को तैयार हो गयीं। उसी समय रथ तैयार हुआ, लक्ष्मण और सीता उस पर बैठकर चले। सीता जी बहुत परसन्न थीं। हर एक नयी चीज को देखकर परश्न करने लगती थीं, यह क्या है, वह क्या चीज है? किन्तु लक्ष्मण इतने शोकगरस्थ थे कि हूंहां करके टाल देते थे। उनके मुंह से शब्द न निकलता था। बातें करते तो तुरंत पर्दा खुल जाता, क्योंकि उनकी आंखों में बारबार आंसू भर आते थे। आखिर रथ गंगा के किनारे जा पहुंचा।
सीताजी बोलीं—तो क्या हम लोग आज जंगलों ही में रहेंगे? शाम होने को आयी, अभी तो किसी ऋषिमुनि के आश्रम में भी नहीं गयी। लौटेंगे कब तक?
लक्ष्मण ने मुंह फेरे हुए उत्तर दिया—देखिये, कब तक लौटते हैं।
मांझी को ज्योंही रानी सीता के आने की सूचना मिली, वह राज्य की नाव खेता हुआ आया। सीता रथ से उतरकर नाव में जा बैठीं, और पानी से खेलने लगीं। जंगल की ताजी हवा ने उन्हें परफुल्लित कर दिया था।

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